Wednesday, 6 June 2012

Kashi Vishwanath



सौराष्ट्रे सोमनाथं  श्रीशैले मल्लिकार्जुनम् |
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम् ||
 
परल्यां वैद्यनाथं  डाकिन्यां भीमशङ्करम् |
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ||
 
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे |
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं  शिवालये ||
 
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः |
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति ||
 
एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति |
कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः ||

[हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहां-जहां स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में १२ है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशङ्कर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखंड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघुश्मेश्वर।हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिङ्गों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है।]
Dwadash Jyotirlingas
  1. Somnath JyotirLing in Saurashtra (Gujarat)
  2. Mallikarjun jyoptirling in Srisailam (Andhra Pradesh)
  3. Mahakaleshwar jyotirling in Ujjain (Madhya Pradesh)
  4. Omkareshwar jyotirling in Shivpuri / mAmaleswara (Madhya Pradesh)
  5. Vaidyanath jyotirling in Parali (Maharashtra)
  6. Bhimashankar jyotirling in Dakini (Maharashtra)
  7. Rameshwar jyotirling in Setubandanam / Rameshwaram (Tamilnadu)
  8. Nageswar jyotirling in Darukavanam (Gujarat)
  9. Visweswar jyotirling in Varanasi (Uttar Pradesh)
  10. Tryambakeswar jyotirling in Nasik (Maharashtra)
  11. Kedareswar jyotirling in Kedarnath / Himalayas (Uttaranchal)
  12. Ghrishneswar jyotirling in Devasrovar (Maharashtra)

Location of Kashi Vishwanath Jyotirlinga

The name Varanasi has its origin possibly from the names of the two rivers Varuna and Assi, for the old city lies in the north shores of the Ganges bounded by its two tributaries, the Varuna and the Assi, with the Ganges being to its south.
Through the ages, Varanasi was variously known as Avimuktaka, Anandakanana, Mahasmasana, Surandhana, Brahma Vardha, Sudarsana, Ramya, and Kasi.
In the Rigveda, the city was referred to as Kasi or Kashi, "the luminous one" as an allusion to the city's historical status as a centre of learning, literature, art and culture. Kashikhand described the glory of the city in 15, 000 verses in the Skanda Purana. A tribe called kasha used to live therefore, the city was also known as Kashi. Near Kashi, Ganga flows in the shape of a bow. Hence it acquired special importance. Varanasi is located in Uttar Pradesh, in the Gangetic plains. The city is also called Benaras.

Temple

A Shiva temple has been mentioned in Puranas including Kashi Khanda (section) of Skanda Purana. In 490 AD, the Kashi Vishwanath Temple was built. In 11th Century AD, Hari Chandra constructed a temple. Muhammad Ghori destroyed it along with other temples of Varanasi during his raid in 1194. Reconstruction of the temple started soon after. This was demolished by Qutb-ud-din Aibak. After Aibak's death the temple was again rebuilt by Hindu rajas. In 1351 it was destroyed again by Firuz Shah Tughlaq. The temple was rebuilt in 1585 by Todar Mal, the Revenue Minister of Akbar's Court. Aurangzeb ordered its demolition in 1669 and constructed Gyanvapi Mosque, which still exists alongside the temple. Traces of the old temple can be seen behind the mosque. It is said that the Shiv-Linga was thrown in the 'well'. There is a small well in the temple called the Jnana Vapi (the wisdom well) and it is believed that the Jytorlinga was hidden in the well to protect it at the time of invasion. It is said that the main priest of the temple had jumped in the well with the Shiv Ling in order to protect the (Jyoti-r) Ling from the invaders. So the original Shiv-linga now resides in the well. In the year 1785 a Naubatkhana was built up in front of the Temple by the then Collector Mohd Ibrahim Khan at the instance of Governor General Warren Hastings. The current temple was built by Ahilya Bai Holkar, the Hindu Maratha queen of Malwa kingdom, in 1780. The temple spire and the two domes are plated with 1000 kg of gold donated by the Sikh Maharaja Ranjit Singh of Punjab, in 1835 Third dome still remains uncovered, Ministry of culture & Religious affairs of U.P. Govt. is taking keen interest for gold plating of third dome of Temple. A huge bell hangs in the temple. It was donated by the King of Nepal.. In 1785 AD, the then King of Kashi, Mansaram and his son Belvant Singh built many more temples near Varanasi. On January 28, 1983 the temple was taken over by the Govt. of Uttar Pradesh and it's management ever since stands entrusted to a Trust with Dr. Vibhuti Narayan Singh (former Kashi Naresh) as president and an Executive Committee with Divisional Commissioner as Chairman.
The temple complex consists of a series of smaller shrines, located in a small lane called the Vishwanatha Galli, near the river. The linga the main deity at the shrine is 60 cm tall and 90 cm in circumference housed in a silver altar. There are small temples for Kaalbhairav, Dhandapani, Avimukteshwara, Vishnu, Vinayaka, Sanishwara, Virupaksha and Virupaksh Gauri in the complex.
The Temple has been visited by all great saints- Adi Shankaracharya, Ramkrishna Paramhansa, Swami Vivekanand, Goswami Tulsidas, Maharshi Dayanand Saraswati, Gurunanak and several other spiritual personalities.

The Legend of Kashi

It is believed Goddess Parvathi's mother felt ashamed that her son-in-law had no decent dwelling. To please Parvathi Devi, Siva asked Nikumbha to provide him with a dwelling place at Kashi.
On the request of Nikumbha, Aunikumbha a Brahmin made Divodas construct a temple for the Lord here. The pleased Lord granted boons to all his devotees. But Divodas was not blessed with a son. The angered Divodas demolished the structure. Nikubha cursed that the area would be devoid of people. When the place was emptied Lord Siva once again took residence here permanently. The Lord along with Parvathi Devi once again started blessing his devotees with wonderful boons.
Parvathi Devi was so pleased that she offered food (annam) to one and all and hence is worshipped as Annapoorani. The Lord himself is seen with a bowl in his hands asking for annam from the seated Devi at the Devi's shrine adajacent to Viswanathar's shrine. This is considered to be one of the 52 Sakthipeedams (the place where Parvathi's left hand fell, when her corpse was cut by Mahavishnu's sudarsana chakram). Behind the temple is situated the temple of Dhundhiraja Ganapathi
धार्मिक महत्व-
ऐसा माना जाता है कि जब पृथ्वी का निर्माण हुआ था तब प्रकाश की पहली किरण काशी की धरती पर पड़ी थी। तभी से काशी ज्ञान तथा आध्यात्म का केंद्र माना जाता है।
यह भी माना जाता है कि निर्वासन में कई साल बिताने के पश्चात भगवान शिव इस स्थान पर आए थे और कुछ समय तक काशी में निवास किया था। ब्रह्माजी ने उनका स्वागत दस घोड़ों के रथ को दशाश्वमेघ घाट पर भेजकर किया था।
विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग कथा: विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के संबन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है. बात उस समय की है जब भगवान शंकर पार्वती जी से विवाह करने के बाद कैलाश पर्वत पर ही रहते थें. परन्तु पार्वती जी को यह बात अखरती थी कि, विवाह के बाद भी उन्हें अपने पिता के घर में ही रहना पडे़. इस दिन अपने मन की यह इच्छा देवी पार्वती जी ने भगवान शिव के सम्मुख रख दी. अपनी प्रिया की यह बात सुनकर भगवान शिव कैलाश पर्वत को छोड कर देवी पार्वती के साथ काशी नगरी में आकर रहने लगे. और काशी नगरी में आने के बाद भगवान शिव यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में स्थापित हो गए. तभी से काशी नगरी में विश्वनाथ ज्योतिर्लिग ही भगवान शिव का निवास स्थान बन गया है.
श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद के काशी नगर में अवस्थित है। कहते हैं, काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी है, जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। इसे आनन्दवन, आनन्दकानन, अविमुक्त क्षेत्र तथा काशी आदि अनेक नामों से स्मरण किया गया है। काशी साक्षात सर्वतीर्थमयी, सर्वसन्तापहरिणी तथा मुक्तिदायिनी नगरी है। निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के रूप में साक्षात अवस्थित हैं। इस काशी क्षेत्र में स्थित
  1. श्री दशाश्वमेध
  2. श्री लोलार्क
  3. श्री बिन्दुमाधव
  4. श्री केशव और
  5. श्री मणिकर्णिक
ये पाँच प्रमुख तीर्थ हैं, जिनके कारण इसे ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है। काशी के उत्तर में ओंकारखण्ड, दक्षिण में केदारखण्ड और मध्य में विश्वेश्वरखण्ड में ही बाबा विश्वनाथ का प्रसिद्ध है। ऐसा सुना जाता है कि मन्दिर की पुन: स्थापना आदि जगत गुरु शंकरचार्य जी ने अपने हाथों से की थी। श्री विश्वनाथ मन्दिर को मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने नष्ट करके उस स्थान पर मस्जिद बनवा दी थी, जो आज भी विद्यमान है। इस मस्जिद के परिसर को ही 'ज्ञानवाणी' कहा जाता है। प्राचीन शिवलिंग आज भी 'ज्ञानवापी' कहा जाता है। आगे चलकर भगवान शिव की परम भक्त महारानी अहल्याबाई ने ज्ञानवापी से कुछ हटकर श्री विश्वनाथ के एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया था। महाराजा रणजीत सिंह जी ने इस मन्दिर पर स्वर्ण कलश (सोने का शिखर) चढ़वाया था। काशी में अनेक विशिष्ट तीर्थ हैं, जिनके विषय में लिखा है–
विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं भैरवम्।
वन्दे काशीं गुहां गंगा भवानीं मणिकर्णिकाम्।।
अर्थात ‘विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग बिन्दुमाधव, ढुण्ढिराज गणेश, दण्डपाणि कालभैरव, गुहा गंगा (उत्तरवाहिनी गंगा), माता अन्नपूर्णा तथा मणिकर्णिक आदि मुख्य तीर्थ हैं।

काशी नगरी की उत्पत्ति

काशी नगरी की उत्पत्ति तथा उसकी भगवान शिव की प्रियतमा बनने की कथा स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में वर्णित है। काशी उत्पत्ति के विषय में अगस्त्य जी ने श्रीस्कन्द से पूछा था, जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कन्द ने उन्हें बताया कि इस प्रश्न का उत्तर हमारे पिता महादेव जी ने माता पार्वती जी को दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘महाप्रलय के समय जगत के सम्पूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे, सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था। उस समय 'सत्' स्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त सूर्य, नक्षत्र, ग्रह,तारे आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक ब्रह्म का अस्तित्त्व था, जिसे शास्त्रों में ‘एकमेवाद्वितीयम्’ कहा गया है। ‘ब्रह्म’ का ना तो कोई नाम है और न रूप, इसलिए वह मन, वाणी आदि इन्द्रियों का विषय नहीं बनता है। वह तो सत्य है, ज्ञानमय है, अनन्त है, आनन्दस्वरूप और परम प्रकाशमान है। वह निर्विकार, निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प तथा सर्वव्यापी, माया से परे तथा उपद्रव से रहित परमात्मा कल्प के अन्त में अकेला ही था।
कल्प के आदि में उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि ‘मैं एक से दो हो जाऊँ’। यद्यपि वह निराकार है, किन्तु अपनी लीला शक्ति का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया। परमेश्वर के संकल्प से प्रकट हुई वह ऐश्वर्य गुणों से भरपूर, सर्वज्ञानमयी, सर्वस्वरूप द्वितीय मूर्ति सबके लिए वन्दनीय थी। महादेव ने पार्वती जी से कहा– ‘प्रिये! निराकार परब्रह्म की वह द्वितीय मूर्ति मैं ही हूँ।
सभी शास्त्र और विद्वान मुझे ही ‘ईश्वर ’ कहते हैं। साकार रूप में प्रकट होने पर भी मैं अकेला ही अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करता हूँ। मैंने ही अपने शरीर से कभी अलग न होने वाली 'तुम' प्रकृति को प्रकट किया है। तुम ही गुणवती माया और प्रधान प्रकृति हो। तुम प्रकृति को ही बुद्धि तत्त्व को जन्म देने वाली तथा विकार रहित कहा जाता है। काल स्वरूप आदि पुरुष मैंने ही एक साथ तुम शक्ति को और इस काशी क्षेत्र को प्रकट किया है।’

प्रकृति और ईश्वर

इस प्रकार उस शक्ति को ही प्रकृति और ईश्वर को परम पुरुष कहा गया है। वे दोनों शक्ति और परम पुरुष परमानन्दमय स्वरूप में होकर काशी क्षेत्र में रमण करने लगे। पाँच कोस के क्षेत्रफल वाले काशी क्षेत्र को शिव और पार्वती ने प्रलयकाल में भी कभी त्याग नहीं किया है। इसी कारण उस क्षेत्र को ‘अविमुक्त’ क्षेत्र कहा गया है। जिस समय इस भूमण्डल की, जल की तथा अन्य प्राकृतिक पदार्थों की सत्ता (अस्तित्त्व) नहीं रह जाती है, उस समय में अपने विहार के लिए भगवान जगदीश्वर शिव ने इस काशी क्षेत्र का निर्माण किया था। स्कन्द (कार्तिकेय) ने अगस्त्य जी को बताया कि यह काशी क्षेत्र भगवान शिव के आनन्द का कारण है, इसीलिए पहले उन्होंने इसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था।
काशी क्षेत्र के रहस्य को ठीक-ठीक कोई नहीं जान पाता है। उन्होंने कहा कि उस आनन्दकानन में जो यत्र-तत्र (इधर-उधर) सम्पूर्ण शिवलिंग हैं, उन्हें ऐसा समझना चाहिए कि वे सभी लिंग आनन्दकन्द रूपी बीजो से अंकुरित (उगे) हुए हैं।

पुरुषोत्तम

उसके बाद भगवान शिव ने माँ जगदम्बा के साथ अपने बायें अंग में अमृत बरसाने वाली अपनी दृष्टि डाली। उस दृष्टि से अत्यन्त तेजस्वी तीनो लोकों में अतिशय सुन्दर एक पुरुष प्रकट हुआ। वह अत्यन्त शान्त, सतो गुण से परिपूर्ण तथा सागर से भी अधिक गम्भीर और पृथ्वी के समान श्यामल था तथा उसके बड़े-बड़े नेत्र कमल के समान सुन्दर थे। अत्यन्त कमनीय और रमणीय होते हुए भी प्रचण्ड बाहुओं से सुशोभित वह पुरुष सुर्वण रंग के दो पीताम्बरों से अपने शरीर को ढँके हुए था। उसके नाभि कमल से बहुत ही मनमोहक सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी। देखने में वह अकेले ही सम्पूर्ण गुणों की खान तथा समस्त कलाओं का ख़ज़ाना प्रतीत होता था। वह एकाकी ही जगत के सभी पुरुषों में उत्तम था, इसलिए उसे ‘पुरुषोत्तम’ कहा गया।
सब गुणों से विभूषित उस महान पुरुष को देखकर महादेव जी ने उससे कहा– ‘अच्युत! तुम महाविष्णु हो। तुम्हारे नि:श्वास (सांस) से वेद प्रकट होंगे, जिनके द्वारा तुम्हें सब कुछ ज्ञान हो जाएगा अर्थात तुम सर्वज्ञ बन जाओगे।’ इस प्रकार महाविष्णु को कहने के बाद भगवान शंकर (पार्वती) के साथ विचरण करने हेतु आनन्दवन में प्रवेश कर गये।
पुरुषोत्तम भगवान विष्णु जब ध्यान में बैठे, तो उनका मन तपस्या में लग गया। उन्होंने अपने चक्र से एक सुन्दर पुष्करिणी (सरोवर) खोदकर उसे अपने शरीर के पसीने से भर दिया। उसके बाद उस सरोवर के किनारे उन्होंने कठिन तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर पार्वती के साथ भगवान शिव वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने महाविष्णु से वर माँगने के लिए कहा, तो विष्णु ने भवानी सहित हमेशा उनके दर्शन की इच्छा व्यक्त की। भगवान शिव सदा दर्शन देने के वचन को स्वीकार करते हुए बोले कि मेरी मणिमय कर्णिका यहाँ गिर पड़ी है, इसलिए यह स्थान 'मणिकर्णिका तीर्थ' के नाम से निवेदन किया कि चूँकि मुक्तामय (मणिमय) कुण्डल यहाँ गिरा है, इसलिए यह मुक्ति का प्रधान क्षेत्र माना जाये अर्थात अकथनीय ज्योति प्रकाशित होती रहे। इन कारणों से इसका दूसरा नाम ‘काशी’ भी स्वीकार हो। विष्णु ने आगे निवेदन किया कि ब्रह्मा से लेकर कीट-पतंग जितने भी प्रकार के जीव हैं, उन सबके काशी क्षेत्र में मरने पर मोक्ष की प्राप्ति अवश्य हो। उस मणिकर्णिका तीर्थ में स्नान, सन्ध्या, जप, हवन, पूजन, वेदाध्ययन, तर्पण, पिण्ड दान, दशमहादान, कन्यादान, अनेक प्रकार के यज्ञों, व्रतोद्यापन वृषोत्सर्ग तथा शिवलिंग स्थापना आदि शुभ कर्मों का फल मोक्ष के रूप में प्राप्त होवे। जगत में जितने भी क्षेत्र हैं, उनमें सर्वाधिक सुन्दर और शुभकारी हो तथा इस काशी का नाम लेने वाले भी पाप से मुक्त हो जायें।’
महाविष्णु की बातों को स्वीकार करते हुए शिव ने उन्हें आदेश दिया कि ‘आप विविध प्रकार की यथायोग्य सृष्टि करो और उनमें जो कुमार्ग पर चलने वाले दुष्टात्मा हैं, उनके संहार में भी कारण बनो। पाँच कोस के क्षेत्रफल में फैला यह काशीधाम मुझे अतिशय प्रिय है। मैं यहाँ सदा निवास करता हूँ, इसलिए इस क्षेत्र में सिर्फ़ मेरी ही आज्ञा चलती है, यमराज आदि किसी अन्य की नहीं। इस 'अविमुक्त' क्षेत्र में रहने वाला पापी हो अथवा धर्मात्मा उन सबका शासक अकेला मैं ही हूँ। काशी से दूर रहकर भी जो मनुष्य मानसिक रूप से इस क्षेत्र का स्मरण करता है, उसे पाप स्पर्श नहीं करता है और वह काशी क्षेत्र में पहुँच कर उसके पुण्य के प्रभाव से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जो कोई संयमपूर्वक काशी में बहुत दिनों तक निवास करता है, किन्तु संयोगवश उसकी मृत्यु काशी से बाहर हो जाती है, तो वह भी स्वर्गीय सुख को प्राप्त करता है और अन्त में पुन: काशी में जन्म लेकर मोक्ष पद को प्राप्त करता है।

स्कन्द पुराण के अनुसार

स्कन्द पुराण के इस आख्यान से स्पष्ट होता है कि श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या आदि से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहाँ निराकार परब्रह्म परमेश्वर महेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। उन्होंने दूसरी बार महाविष्णु की तपस्या के फलस्वरूप प्रकृति और पुरुष (शक्ति और शिव) के रूप में उपस्थित होकर आदेश दिया। महाविष्णु के आग्रह पर ही भगवान शिव ने काशी क्षेत्र को अविमुक्त कर दिया। उनकी लीलाओं पर ध्यान देने से काशी के साथ उनकी अतिशय प्रियशीलता स्पष्ट मालूम होती है। इस प्रकार द्वादश ज्योतिर्लिंग में श्री विश्वेश्वर भगवान विश्वनाथ का शिवलिंग सर्वाधिक प्रभावशाली तथा अद्भुत शक्तिसम्पन्न लगता है। माँ अन्नापूर्णा (पार्वती) के साथ भगवान शिव अपने त्रिशूल पर काशी को धारण करते हैं और कल्प के प्रारम्भ में अर्थात सृष्टि रचना के प्रारम्भ में उसे त्रिशूल से पुन: भूतल पर उतार देते हैं। शिव महापुराण में श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कुछ इस प्रकार बतायी गई है– 'परमेश्वर शिव ने माँ पार्वती के पूछने पर स्वयं अपने मुँह से श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कही थी। उन्होंने कहा कि वाराणसी पुरी हमेशा के लिए गुह्यतम अर्थात अत्यन्त रहस्यात्मक है तथा सभी प्रकार के जीवों की मुक्ति का कारण है। इस पवित्र क्षेत्र में सिद्धगण शिव-आराधना का व्रत लेकर अनेक स्वरूप बनाकर संयमपूर्वक मेरे लोक की प्राप्ति हेतु महायोग का नाम 'पाशुपत योग' है। पाशुपतयोग भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रकार का फल प्रदान करता है।
भगवान शिव ने कहा कि मुझे काशी पुरी में रहना सबसे अच्छा लगता है, इसलिए मैं सब कुछ छोड़कर इसी पुरी में निवास करता हूँ। जो कोई भी मेरा भक्त है और जो कोई मेरे शिवतत्त्व का ज्ञानी है, ऐसे दोनों प्रकार के लोग मोक्षपद के भागी बनते हैं, अर्थात उन्हें मुक्ति अवश्य प्राप्त होती है। इस प्रकार के लोगों को न तो तीर्थ की अपेक्षा रहती है और न विहित अविहित कर्मों का प्रतिबन्ध। इसका तात्पर्य यह है कि उक्त दोनों प्रकार के लोगों को जीवन्मुक्त मानना चाहिए। वे जहाँ भी मरते हैं, उन्हें तत्काल मुक्ति प्राप्त होती है। भगवान शिव ने माँ पार्वती को बताया कि बालक, वृद्ध या जवान हो, वह किसी भी वर्ण, जाति या आश्रम का हो, यदि अविमुक्त क्षेत्र में मृत्यु होती है, तो उसे अवश्य ही मुक्ति मिल जाती है। स्त्री यदि अपवित्र हो या पवित्र हो, वह कुमारी हो, विवाहिता हो, विधवा हो, बन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता हो अथवा उसमें संस्कारहीनता हो, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो, यदि उसकी मृत्यु काशी क्षेत्र में होती है, तो वह अवश्य ही मोक्ष की भागीदार बनती है।

शिव पुराण के अनुसार

शिव महापुराण के अनुसार इस पृथ्वी पर जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्गुण, निर्विकार तथा सनातन ब्रह्मस्वरूप ही है। अपने कैवल्य (अकेला) भाव में रमण करने वाले अद्वितीय परमात्मा में जब एक से दो बनने की इच्छा हुई, तो वही सगुणरूप में ‘शिव’ कहलाने लगा। शिव ही पुरुष और स्त्री, इन दो हिस्सों में प्रकट हुए और उस पुरुष भाग को शिव तथा स्त्रीभाग को ‘शक्ति’ कहा गया। उन्हीं सच्चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने अदृश्य रहते हुए स्वभाववश प्रकृति और पुरुषरूपी चेतन की सृष्टि की। प्रकृति और पुरुष सृष्टिकर्त्ता अपने माता-पिता को न देखते हुए संशय में पड़ गये। उस समय उन्हें निर्गुण ब्रह्म की आकाशवाणी सुनाई पड़ी– ‘तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए, जिससे कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।’उसके बाद भगवान शिव ने तप:स्थली के रूप में तेजोमय पाँच कोस के शुभ और सुन्दर एक नगर का निर्माण किया, जो उनका ही साक्षात रूप था। उसके बाद उन्होंने उस नगर को प्रकृति और पुरुष के पास भेजा, जो उनके समीप पहुँच कर आकाश में ही स्थित हो गया। तब उस पुरुष (श्री हरि) ने उस नगर में भगवान शिव का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से वर्षों तपस्या की। तपस्या में श्रम होने के कारण श्री हरि (पुरुष) के शरीर से श्वेतजल की अनेक धाराएँ फूट पड़ीं, जिनसे सम्पूर्ण आकाश भर गया। वहाँ उसके अतिरकित कुछ भी दिखाई नहीं देता था। उसके बाद भगवान विष्णु (श्री हरि) मन ही मन विचार करने लगे कि यह कैसी विचित्र वस्तु दिखाई देती है। उस आश्चर्यमय दृश्य को देखते हुए जब उन्होंने अपना सिर हिलाया, तो उनके एक कान से मणि खिसककर गिर पड़ी। मणि के गिरने से वह स्थान ‘मणिकर्णिका-तीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
उस महान जलराशि में जब पंचक्रोशी डूबने लगी, तब निर्गुण निर्विकार भगवान शिव ने उसे शीघ्र ही अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया। तदनन्तर विष्णु (श्रीहरि) अपनी पत्नी (प्रकृति) के साथ वहीं सो गये। उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ, जिससे ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति में भी निराकार शिव का निर्देश ही कारण था। उसके बाद ब्रह्मा जी ने शिव के आदेश से विलक्षण सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी। ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड का विस्तार (विभाजन) चौदह भुवनों में किया, जबकि ब्रह्माण्ड का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन बताया गया है। भगवान शिव ने विचार किया कि ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत कर्मपाश (कर्बन्धन) में फँसे प्राणी मुझे कैसे प्राप्त हो सकेंगे? उस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने पंचक्रोशी को अपने त्रिशूल से उतार कर इस जगत में छोड़ दिया।
काशी में स्वयं परमेश्वर ने ही अविमुक्त लिंग की स्थापना की थी, इसलिए उन्होंने अपने अंशभूत हर (शिव) को यह निर्देश दिया कि तुम्हें उस क्षेत्र का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। यह पंचक्रोशी लोक का कल्याण करने वाली, कर्मबन्धनों को नष्ट करने वाली, ज्ञान प्रकाश करने वाली तथा प्राणियों के लिए मोक्षदायिनी है। यद्यपि ऐसा बताया गया है कि ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा हो जाने पर इस जगत् का प्रलय हो जाता है, फिर भी अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है, क्योंकि उसे भगवान परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं। ब्रह्मा जी जब नई सृष्टि प्रारम्भ करते हैं, उस समय भगवान शिव काशी को पुन: भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण (नष्ट) करने के कारण ही उस क्षेत्र का नाम ‘काशी’ है, जहाँ अविमुक्तेश्वरलिंग हमेशा विराजमान रहता है। संसार में जिसको कहीं गति नहीं मिलती है, उसे वाराणसी में गति मिलती है। महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं के दुष्फल का विनाश करने वाली है। भगवान शंकर की यह प्रिय नगरी समानरूप से भोग ओर मोक्ष को प्रदान करती है।
कालाग्नि रुद्र के नाम से विख्यात कैलासपति शिव अन्दर से सतोगुणी तथा बाहर से तमोगुणी कहलाते हैं। यद्यपि वे निर्गुण हैं, किन्तु जब सगुण रूप में प्रकट होते हैं, तो ‘शिव’ कहलाते हैं। रुद्र ने पुन: पुन: प्रणाम करके निर्गुण शिव से कहा– ‘विश्वनाथ’ महेश्वर! निस्सन्देह मैं आपका ही हूँ। मुझ आत्मज (पुत्र) पर आप कृपा कीजिए। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, आप लोककल्याण की कामना से जीवों का उद्धार करने के लिए यहीं विराजमान हों।’ इसी प्रकार स्वयं अविमुक्त क्षेत्र ने भी शंकर जी से प्रार्थना की है। उसने कहा– ‘देवाधिदेव’ महादेव वास्तव में आप ही तीनों लोकों के स्वामी हैं और ब्रह्मा तथा विष्णु आदि के द्वारा पूजनीय हैं। आप काशीपुरी को अपनी राजधानी के रूप में स्वीकार करें। मैं यहाँ स्थिर भाव से बैठा हुआ सदा आपका ध्यान करता रहूँगा। सदाशिव! आप उमा सहित यहाँ सदा विराजमान रहें और अपने भक्तों का कार्य सिद्ध करते हुए समस्त जीवों के संसार सागर से पार करें। इस प्रकार भगवान शिव अपने गणों सहित काशी में विराजमान हो गये। तभी से काशी पुरी सर्वश्रेष्ठ हो गई। उक्त आशय को ही शिव पुराण में इस प्रकार कहा गया है–
देवदेव महादेव कालामयसुभेषज।
त्वं त्रिलोकपति: सत्यं सेव्यो ब्रह्माच्युतादिभि:।।
काश्यां पुर्यां त्वया देव राजधानी प्रगृह्यताम्।
मया ध्यानतया स्थेयमचिन्त्यसुखहेतवे।।
मुक्तिदाता भवानेव कामदश्च चापर:
तस्मात्त्वमुपकाराय तिष्ठोमासहित: सदा।।
जीवान्भवाष्धेरखिलास्तारय त्वं सदाशिव।
भक्तकार्य्यं कुरू हर प्रार्थयामि पुन: पुन:।।
इत्येवं प्रार्थितस्तेन विश्वनाथेन शंकर:
लोकानामुपकारार्थं तस्थौ तत्रापि सर्वराट्।।

Temples in Varanasi

Varanasi is a city of temples. Some of popular temples are Kashi Vishwanath temple, Durga temple, Sankat mochan, Bharat mata, Tulsi manas, Tilbhandeshwar temple & others.

Ghats

Varanasi has nearly 100 ghats. Many of the ghats were built when the city was under Maratha control. Marathas, Shindes (Scindias), Holkars, Bhonsles, and Peshwas stand out as patrons of present-day Varanasi. Most of the ghats are bathing ghats, while others are used as cremation sites. Many ghats are associated with legends or mythologies while many ghats are privately owned. The former Kashi Naresh owns Shivala or Kali ghat. Other important ghats are Assi Ghat, Dasaswamedh Ghat, Harish Chandra Ghat, Manikarnika Ghat, Tulsi Ghat.

Places to Visit in Varanasi

Varanasi is a noted centre for silk weaving and brassware. Fine silks and brocaded fabrics, exquisite saris, brassware, jewellery, woodcraft, carpets, wall hangings, lamp shades and masks of Hindu and Buddhist deities are some of Varanasi's shopping attractions. The main shopping areas include the Chowk, Gyan Vapi, Vishwanath Gali, Thatheri Bazar, Lahurabir, Godoulia or Dashswamedh Gali and Golghar. Besides the illustrious and fine silks and brocaded fabrics, one can also buy shawls, carpets, wall hangings, Zari work; stone inlay work, glass beads and bangles, masks of Hindu and Buddhist deities and lampshades.

Jantar Mantar at Varanasi

An observatory built by Maharaja Jai Singh, of Jaipur in the year 1737 is situated close to the Dashashwamedh Ghat

Bharat Kala Bhavan

Ramnagar Fort

The Ramnagar Fort lies about 14 km. from Varanasi and is situated on the opposite bank of river Ganges. It is the ancestral home of the Maharaja of Banaras. Maharaja Balwant Singh built this fort-palace in the eighteenth century. The fort is built in red sandstone. The Ramnagar fort has a temple and a museum within the grounds and the temple is dedicated to Ved Vyasa, who wrote Mahabharata, the great Indian epic.
A rare collection of manuscripts, especially religious writings, is housed in Saraswati Bhawan with the Ramnagar Fort. It includes a precious handwritten manuscript by Tulsidas. There are also many books illustrated in the Mughal miniature style, with beautifully designed covers.
Sarnath is a place of Buddhist pilgrimage. The site where Buddha gave his first sermon and thereby founded Buddhism is marked by Dhamek Stupa. Buddhist traditions worldwide have each built their country's architectural style of Buddhist temple here.
Varanasi is one of the holiest places in Buddhism too, being one of the four pilgrimage sites said to have been designated by Gautama Buddha himself (the others being Kushinagar, Bodh Gaya, and Lumbini). At Sarnath, the site of the deer park, Gautama Buddha is said to have given his first sermon about the basic principles of Buddhism. The Dhamek Stupa is one of the few pre-Ashokan stupas still standing, though only its foundation remains. Also remaining is the Chaukhandi Stupa commemorating the spot where Buddha met his first disciples (in the 5th century or earlier, BC). An octagonal tower was built later there. There is an Archeological museum at Sarnath.

Jainism in Varanasi


Jain Ghat, Varanasi
Varanasi is a pilgrimage site for Jains along with Hindus and Buddhists. It is believed to be the birthplace of Suparshvanath, Shreyansanath, and Parshva, who are respectively the seventh, eleventh, and twenty-third Jain Tirthankars and as such Varanasi is a holy city for Jains. Shree Parshvanath Digambar Jain Tirth Kshetra (Digambar Jain Temple) is situated in Bhelupur, Varanasi. This temple is of great religious importance to Jain Religion. Parshvanath was the twenty-third Tirthankara in Jainism in the 9th century BCE, traditionally (877 – 777 BCE. He is the earliest Jain leader generally accepted as a historical figure. He was a nobleman belonging to the Kshatriya caste. He lived in Varanasi in India around 800 BCE and is the most popular object of Jain devotion. Varanasi is the birthplace of.
Hindus regard Kashi as one of the Shakti Peethas, and that Vishalakshi Temple stands on the spot where Goddess Sati's earrings fell. Hindus of the Shakti sect make a pilgrimage to the city because they regard the river Ganges itself as the Goddess Shakti. Adi Shankara wrote his commentaries on Hinduism here, leading to the great Hindu revival. Vaishnavism and Shaivism have always co-existed in Varanasi harmoniously. Vishalakshi Temple of Divine Mother Sati, stands at Meer Ghat just behind Vishwanath Temple.
Manikarni
When Sati's body was cut to pieces by the sudarshana chakra of Lord Vishnu, it is said that karna kundala (earring) of Sati fell here. Hence Devi here is also known as Manikarni. Some pundits feel that karna kundala is merely an ornament and not part of the body. Therefore this place can at best be considered as a upapeetha, a minor or sub-centre. Another version says that this is a shakti peetha only because one of the three eyes akshi fell here. However it is amongst the 18 undisputed shakti peeths. As the divine eye can perceive the entire universe, Mother here is called Vishalakshi, the vast-eyed. Lord Shiva is known as Kalabhairava.

How to reach Varanasi

Varanasi is easily accessible from all parts of the country. Very well connected by road, rail and air, the City offers convenient and comfortable traveling options to and from other cities of India.
By Air
Indian Airlines flies to Babatpur airport which is 22 km. from Varanasi and 30 km. from Sarnath There is a. direct, daily flight connection between Varanasi and New Delhi. It also connects Varanasi to Delhi, Agra, Khajuraho, Calcutta, Mumbai, Lucknow and Bhuvaneshwar. For travel reservations contact Indian Airlines.
By Train
Varanasi is an important and major rail junction. The city is served by trains from all metros and major cities across the country. New Delhi, mumbai, Calcutta, Chennai, Gwalior, Meerut, Indore, Guwahati, Allahbad, Lucknow, Dehradun etc the city has direct rail connections.
By Road
Varanasi, on (National Highway) NH2 from Calcutta to Delhi, NH7 to Kanya Kumari and NH29 to GoraKhpur is connected literally to the rest of the country by good motorable, all – weather roads. Some important road distances are: Agra 565 km., Allahabad 128 km., Bhopal 791 km., Bodhgaya 240 km., Kanpur 330 km., Khajuraho 405 km., Lucknow 286 km., patna 246 km., Sarnath 10 km., Lumbini (Napal) 386 km., Kushi Nagar 250 km. (via Gorkhpur), UPSRTC Bus Stand, Sher Shah Suri Marg, Golgadda Bus Stand.
Local Transport
Taxis: Private taxis are available from travel agencies, hotels, etc., auto rickshaws, cycle rickshaws and Tempos are also readily available.
Left Luggage Facility: Left luggage facility is available at both the Varanasi and Mughalsarai railway stations (24 Hours).

Accomodation

GOVT. ACCOMODATION

Railway Retiring Rooms,
varanasi Cantt.Railway Station, 1st Floor, Booking: Matron-in-charge.
Government Tourist Bunglow, Parade Kothi,Cantt.Tel:343413
Near Railway Station
GOVT. TOURISM OFFICE
U.P.Government Tourism Office
Parabe Kothi,cantt Tel:2208413,2208545
Open 10 am - 5 pm
Close: Sunday's and government Holidays.

U.P.Government Tourist Information Counter
Varanasi Cantt.Railway Station
Near Enquiry Office, Main Hall
Open daily 7 am - 8 pm

U.P. Government Tourist Office, Sarnath Tel:2386965

Government of India Tourist Office
158 The Mall, cantt. Tel:2343744
Open 10 am - 5 pm. closed Sunday and Government holidays

Bihar State Tourist Office
Englishiya market,Sher shah Suri Marg, Cantt Tel: 343821
Open daily 8 am - 8 pm


रचन: आदि शङ्कराचार्य
सम्पूर्ण स्तोत्रम्
सौराष्ट्रदेशे विशदे‌तिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्
भक्तप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये 1
श्रीशैलशृङ्गे विविधप्रसङ्गे शेषाद्रिशृङ्गे‌पि सदा वसन्तम्
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेनं नमामि संसारसमुद्रसेतुम् 2
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय सज्जनानाम्
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम् 3
कावेरिकानर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तम् ॐकारमीशं शिवमेकमीडे 4
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसं तं गिरिजासमेतम्
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि 5
यं डाकिनिशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शङ्करं भक्तहितं नमामि 6
श्रीताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसङ्ख्यैः
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि 7
याम्ये सदङ्गे नगरे‌तिरम्ये विभूषिताङ्गं विविधैश्च भोगैः
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये 8
सानन्दमानन्दवने वसन्तम् आनन्दकन्दं हतपापबृन्दम्
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये 9
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरितीरपवित्रदेशे
यद्दर्शनात् पातकं पाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे 10
महाद्रिपार्श्वे तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः
सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे 11
इलापुरे रम्यविशालके‌स्मिन् समुल्लसन्तं जगद्वरेण्यम्
वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये 12
ज्योतिर्मयद्वादशलिङ्गकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण
स्तोत्रं पठित्वा मनुजो‌तिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च